Monday 2 May 2016

सर्दियों की बैंकिंग !!


कुछ तो हवा सर्द थी, कुछ अनसुलझे खयाल भी ,
न जाने कब सो गया, बिना किसी एहसास के,
सुबह हुई, 'सूरज' भी डरा सहमा सा,
अपना चेहरा बादलों में छुपाया हुआ,
इस आस में शायद ये धुंध छंटे,
जाना पड़ा हर दिन की तरह इस फ़िक्र में,
कहीं कुछ मजदूरी न हाथ से निकल जाये,
फिर वापस वही सुर, वही ताल,
चारों ओर हर लम्हा, एक सी आवाज़,
'सर', 'मैडम', 'प्लीज', 'खाता',
ट्रिन ट्रिन, ट्रिन ट्रिन, ट्रिन ट्रिन,
बस इन्ही सब के बीच,
हर दिन, हर वक़्त उलझना,
जैसे कोई और ही दुनिया हो,
दोपहर की धूप को तो,
जैसे देख लेना भी गुनाह हो ,
जैसे तैसे अपने अंजाम की ओर,
हर शाम, छिपता छिपाता,
बेवक़्त, तेज़ कदम,
रोज लौटता हूँ घर, लुटा सा, झुका सा,
टूटा सा, कुचला सा,
सर्द हवा के झोंके संग लिए,
कुछ नए अनसुलझे सवालों के बीच,
हर सुबह फिर से उसी दुनिया में आने को ।

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