वक़्त से कौन कहे ,यार ज़रा आहिस्ता चल,
अभी कुछ पल और बिताने दे,
न जाने कब बिखर जाये ये मंज़र,
कुछ और यादों के गुलदस्ते बनाने दे |
याद है वो वक़्त
किसी रोज़ शाम के वक़्त ,वो अपट्रान की दुकानें ,और गंगा की लहरें ,
और किसी रोज़ 'सूरज' की पहली किरणों को लपेटे वो नैनी ब्रिज ,
कभी दोस्तों के संग ,सिविल लाइन की सैर ,
तो कभी रात के अँधेरे में भी , कार्ड्स का गेम ,
कभी क्लास का वक़्त, गुजारने का जंग,
तो कभी क्लास छोड़कर ,वो क्रिकेट का मैच ,
अक्सर परीक्षा के दो दिन पहले ,पढने का रंग,
तो कभी-कभी मेस के खाने (अच्छे) देखकर दंग,
याद है वो वक़्त
लिख रहा हूँ आज ,ये भी वक़्त का ही तकाजा है ,
दिल में अभी भी सारी यादें ताज़ा-ताज़ा है ,
गिर पड़ते हैं आंसू ,उन लम्हों को याद कर ,
लगता हैं कलम में स्याही कम, दर्द ज्यादा है |
गर नही ज्यादा तो ये 'वक़्त - ए - रुखसत' ही ज़रा देर रहे ,
ना जाने फिर कब ये ख्वाब , ये पल रहें ,
हमारी तो बस यही इन्तहा है ए मेरे दोस्त ,
कि दूर तन्हाई में भी, बस तुम्हारा साथ रहे |
छोड़ो....वक़्त से कौन कहे ,यार ज़रा आहिस्ता चल |