Friday 13 May 2011

वक़्त से कौन कहे

वक़्त से कौन कहे ,यार ज़रा आहिस्ता चल,

अभी कुछ पल और बिताने दे,

न जाने कब बिखर जाये ये मंज़र,

कुछ और यादों के गुलदस्ते बनाने दे |


याद है वो वक़्त

किसी रोज़ शाम के वक़्त ,वो अपट्रान की दुकानें ,और गंगा की लहरें ,

और किसी रोज़ 'सूरज' की पहली किरणों को लपेटे वो नैनी ब्रिज ,

कभी दोस्तों के संग ,सिविल लाइन की सैर ,

तो कभी रात के अँधेरे में भी , कार्ड्स का गेम ,


कभी क्लास का वक़्त, गुजारने का जंग,

तो कभी क्लास छोड़कर ,वो क्रिकेट का मैच ,

अक्सर परीक्षा के दो दिन पहले ,पढने का रंग,

तो कभी-कभी मेस के खाने (अच्छे) देखकर दंग,

याद है वो वक़्त


लिख रहा हूँ आज ,ये भी वक़्त का ही तकाजा है ,

दिल में अभी भी सारी यादें ताज़ा-ताज़ा है ,

गिर पड़ते हैं आंसू ,उन लम्हों को याद कर ,

लगता हैं कलम में स्याही कम, दर्द ज्यादा है |


गर नही ज्यादा तो ये 'वक़्त - ए - रुखसत' ही ज़रा देर रहे ,

ना जाने फिर कब ये ख्वाब , ये पल रहें ,

हमारी तो बस यही इन्तहा है ए मेरे दोस्त ,

कि दूर तन्हाई में भी, बस तुम्हारा साथ रहे |


छोड़ो....वक़्त से कौन कहे ,यार ज़रा आहिस्ता चल |